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लेख

भारतीय बालसाहित्य में पशु और पक्षी

दिविक रमेश


भारत लगभग सभी मामलों में विविधता का देश है, लेकिन सांस्कृतिक जड़ें समान हैं। यह तथ्य भारतीय भाषाओं (बंगाली, असमिया, उड़िया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, गुजराती, कश्मीरी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं) के बच्चों के साहित्य पर भी लागू होता है। किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि लोकगीत और मौखिक परंपरा, जो सभी भारतीय भाषाओं के बालसाहित्य के उद्गम स्रोत माने गए हैं, के निर्माता कौन थे और वास्तव में वे कब अस्तित्व में आए, लेकिन यह निश्चित है कि भाषा कोई भी हो, हर भाषा का साहित्य एक आम संस्कृति और विरासत को साझा करता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, हर भारतीय भाषा में समान तरह की कविताएँ, गीत, कहानियाँ आदि काफी संख्या में उपलब्ध हैं।

यहाँ मैं स्वीकार करता हूँ और वह भी हिंदी का रचनाकार होने के नाते कि अनुवाद के माध्यम से हिंदी या अंग्रेजी में समस्त भारतीय भाषाओं के समकालीन बालसाहित्य के उपलब्धता के अभाव में मैं कुछ ही उदाहरण दे सकता हूँ। इसके अलावा, हिंदी या बंगाली या मराठी आदि एक ही भारतीय भाषा में इतना विपुल बालसाहित्य उपलब्ध है कि उसे एक छोटे लेख और में समेट लेना लगभग असंभव है। फिर भी मैं कुछ हद तक न्याय करने की कोशिश करूँगा। मैं इस तथ्य का भी उल्लेख करना चाहूँगा कि आज संस्कृत में भी बालसाहित्य (हालाँकि कम) लिखा जा रहा है। जगन्नाथ द्वारा लिखित कहानी, 'मच्छर और पवन' को एक उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जा सकता है। अनुवाद के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम कर रहीं अनेक संस्थाएँ हैं जिनमें साहित्य अकादमी, प्रकाशन विभाग और नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के प्रति भारतीय लोग विशेष रूप से आभारी हैं।

प्रकृति, जिसमें पौधे, पेड़, फूल, पहाड़, झरने, जल, आकाश, रेत, जानवर और पक्षी शामिल हैं, न केवल एक प्रेरक शक्ति है अपितु मनुष्यों की एक अच्छी साथी भी है, यह माँ के बाद, बच्चों की उत्तम, सहज और अनिवार्य साथी भी है। उर्दू भाषा के एक प्रख्यात लेखक और फिल्म निर्माता गुलजार ने गर्व के साथ, अपने पोते के जानवरों के प्रति सहज और विशेष प्रेम से संबंधित अपने अनुभव साझा किए हैं। उनके शब्दों में, "हम रविवार को खाने के लिए बाहर जाते हैं और जब वह होटलों में सुरक्षा-कुत्तों को देखता है तो हमें डर लगता है जबकि वह उनकी ओर दौड़ जाता है। पशुओं में भी एक बच्चे पर हमला नहीं करने की प्रवृत्ति होती है। उसे राखी जी की गाय को टोस्ट खिलाना और नानी की नकल उतारना प्रिय है। वह अपनी मछली और खरगोश को प्यार करता है। वह पालतू जानवरों से वैसे ही प्यार करता है जैसे बोस्की (उसकी माँ) करती थी और अपनी नानी तथा दादी को पसंद करता है।" (दिल्ली टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, रविवार 26 अप्रैल 2014)। इससे पता चलता है कि पीढ़ियाँ बदलती हैं न कि विशेष रूप से बच्चों के बीच प्रकृति के उपहार स्वरूप जानवरों और पक्षियों के प्रति प्यार। उचित ही कहा गया है और मैं एक लेख, 'बाल साहित्य में आदमी के रूप में जानवर' ( लेखक : कैरोलिन एल बर्क, जो इंडियाना विश्वविद्यालय के शिक्षा के क्षेत्र के प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्त हुए और जे. जी. कोपन्हावर (Joby Ganzauge Copenhaver) जो न्यूयॉर्क राज्य विश्वविद्यालय, जेन्स्को (Genesco) में अध्ययन और साक्षरता में एक व्याख्याता हैं) से उद्धृत करना चाहूँगा कि "अधिकांश बच्चे जानवरों के बारे में उत्सुक और शौकीन होते हैं। हममें से कई लोग अपने घरों और दिलों को अपने पालतू जानवरों के साथ साझा करते हैं। निश्चित रूप से हमारे स्थानीय वातावरण, चाहे हम शहर में रहते हों, उपनगर या देहात में रहते हों, बड़े और छोटे जानवरों की एक विशाल विविधता से भरे हैं। इसलिए, यह सहज ज्ञानयुक्त प्रतीत होता है कि हमारे द्वारा कही जाने वाली कहानियों मे इन प्राणियों को जगह मिलती है।" कहना होगा कि भारत के साहित्यिक परिदृश्य का भी यह सच है। बच्चों के साहित्य को जो लोग आयु समूहों के अनुसार विभाजित करने में विश्वास करते हैं, वे सोचते हैं कि 7-10 साल की उम्र तक के बच्चे साहित्य में जानवरों और पक्षियों के प्रति आकर्षित होते हैं। यह तथ्य मानना होगा कि जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है, कविताओं के पैटर्न और विषय-वस्तु (अन्य शैलियों सहित) भी, उनके हितों को ध्यान में रखते हुए, बदलते हैं। चाहे भारतीय बच्चों के लेखकों में से कुछ की राय में राजा-रानियों, पशु, पक्षी, परियों, पौधों और फूलों आदि की समकालीन बाल साहित्य में कोई जगह नहीं है क्योंकि वे वैज्ञानिक युग में रह रहे आज के बच्चों के लिए बासी, पुराने और अप्रासंगिक हो गए हैं, तब भी कितनों ही की निगाह में इनकी पूर्ण रूप में एकांगी अस्वीकृति मान्य नही है। कितने ही भारतीय लेखकों ने जानवरों और पक्षियों के प्रति बच्चों की पसंद और उनके सहज प्यार को स्थापित करने के लिए कितनी ही सुंदर कहानियों आदि की रचना की है। हिंदी के एक प्रमुख कथा लेखक देवेंद्र कुमार ने, नए दृष्टिकोण के साथ, जानवरों और पक्षियों के प्रति प्यार से संबंधित कई कहानियाँ लिखी हैं। उदाहरण के लिए मैं उनकी कहानी "किसका खिलौना" का जिक्र कर सकता हूँ जो पक्षियों के प्रति एक बहुत ही संवेदनशील कहानी है जिसमें एक बच्चा पक्षियों और जानवरों से स्वाभाविक रूप से प्यार करता है। एक वयस्क पिंजरे में तोता-खिलौना घर लाता है और उसे दीवार पर टाँग देता है। बच्ची शैली उसके प्रति बहुत ही आकर्षित होती है। एक शाम वयस्क घर आया तो उसने दीवार से पिंजरे को लापता पाया। उसने गुस्से के साथ देखा कि बच्चे ने पिंजरे के तारों को तोड़ दिया था और तोते के खिलौने को हाथ में पकड़ रखा था। वह मूक रह गया जब उसने बच्चे को उस तोते को होंठों से चूमते देखा। इस तरह का प्यार देख कर कोई भी चकित हो सकता था।

इस तथ्य के बावजूद कि बच्चे जानवरों और पक्षियों को इतना प्यार करते हैं कि वे उनके साथ खेलना चाहता हैं, उन्हें देखना चाहते हैं, उनके साथ रहना चाहते हैं, कई भारतीय माता-पिता और वयस्क हैं (विशेष रूप से मध्यम वर्ग के) जो विभिन्न कारणों से अपने घरों में जानवरों को रखने के पक्ष में नहीं हैं। मसलन वे बिल्लियों को रखने के इसलिए विरुद्ध हैं कि वे चूहे खाती हैं और उनकी वस्तुओं को खराब कर देती हैं। लेकिन कई भारतीय लेखकों ने अपनी रचनाओं में बच्चों का पक्ष लिया है। इस संबंध में मैं फिलहाल तीन कहानियों की बात करना चाहूँगा : 1 'हिंदी लेखक श्रीप्रसाद द्वारा लिखित 'बिल्ली', 2. असमिया लेखक नवकांत बरुआ की 'अणिमा की छोटी बिल्ली' और 3. मैथिली लेखक लिली रे द्वारा लिखित 'आश्विन राजा के तीन मित्र'। इन कहानियों के विषय और फ्रेम लगभग एक ही हैं। विवरण, निश्चित रूप से भिन्न हैं। पहली कहानी में एक बच्चा पालतू जानवर के रूप में एक बिल्ली चाहता है, लेकिन माँ को यह पसंद नहीं है। माँ सोचती है कि बिल्ली गंदी होती है क्योंकि वह चूहे खाती है और दूध पी जाती है। हालाँकि माँ कुत्ते पसंद करती है क्योंकि वे चोरों से घर की रक्षा कर सकते हैं। बच्चों ने बिल्ली को खिलाना-पिलाना शुरू कर दिया और बिल्ली ने घर पर आना-जाना जबकि माँ ने हमेशा विरोध किया। एक रात, लगभग 1 बजे, बिल्ली ने चीखना शुरू कर दिया। माँ ने पति से बिल्ली को दूर भगाने का अनुरोध किया। पति उठा तो उसने देखा कि वहाँ एक चोर था। अन्य लोग भी शामिल हो गए। चोर भाग गया। अब माँ खुश हो गई और घर में बिल्ली को एक पालतू जानवर के रूप में रखने की बच्चों को अनुमति दे दी। दूसरी कहानी एक खूबसूरत कहानी है जिसमें एक लड़की अणिमा घर पर एक बिल्ली का बच्चा ले आती है। किसी को भी बिल्ली पसंद नहीं थी। वे सब बिल्ली के शरारती कृत्यों से परेशान थे जिसका बहुत ही दिलचस्प ढंग से लेखक ने चित्रण किया है। इस कहानी में भी जब बिल्ली एक चोर से घर को बचाने का कारण बनी तो उसे स्वीकार कर लिया गया। तीसरी कहानी में बिल्ली की उपस्थिति तो सभी ने स्वीकार कर ली लेकिन घर के अंदर उसका प्रवेश माँ के कारण वर्जित था जिन्हें अन्यथा बिल्ली और उसके दो बच्चों का खेल पसंद था। वह उन्हें दूध भी देती थी। एक दिन दो बड़े चूहे घर में घुस आए और उन्होंने काट-काट कर कितनी ही कीमती चीजें बर्बाद कर दीं। अंत में, बिल्ली ने दोनों चूहों का काम तमाम कर डाला। बिल्ली की उपयोगिता को देखकर, माँ ने खुशी-खुशी उसके घर में प्रवेश की अनुमति दे दी। इन कहानियों की अतिरिक्त शक्ति, जानवरों की अपनी भाषा का प्रयोग है। जानवर खुद को व्यक्त करने के लिए मानव भाषा का प्रयोग नहीं करते। हमारा अनुभव है कि बच्चों में घर पर रहने वाले जानवरों ही नहीं बल्कि अन्य पक्षियों और कीड़ों तक के प्रति सहज प्यार और लगाव होता है। हिंदी-कवि दिविक रमेश की कविता "सबका घर यह प्यारा" में बच्चों के बीच ऐसे ही प्यार की बहुत कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है - "सदा यही तो कहती हो माँ/ घर यह सिर्फ हमारा अपना,/ लेकिन माँ कैसे मैं जानू/ घर तो यह कितनों का अपना!/ देखो तो कैसे ये चूहे/ खेल रहे हैं पकड़म-पकड़ी/ कैसे मच्छर टहल रहे हैं/ कैसे मस्त पड़ी है मकड़ी!" असल में, बच्चे इन सब को घर का ही हिस्सा मानते हैं। अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक रस्किन बांड ने, जिनके लेखन में सभी जीवित चीजों के प्रति प्यार परिलक्षित हुआ है, अपनी कहानियों में बच्चों के मनोविज्ञान के प्रति समझ का बखूबी परिचय दिया है। उनके अनुसार, "मैंने अपनी अधिकांश खिड़िकियाँ खुली रखकर सबके लिए चीजों को आसान बनाया है। मैं ताजी हवा का प्रचुर मात्रा में घुस आना पसंद करता हूँ और यदि कुछ पक्षी, जानवर, और कीड़े भी चले आएँ तो उनका भी स्वागत है (पेड़ों के साथ बढ़ना..., नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया)।

कितनी ही बहुत अच्छी कहानियाँ हैं जिनमें घर के सभी सदस्यों के द्वारा घर में जानवरों की स्वीकृति का बहुत अच्छा चित्रण हुआ है। इस संबंध में, मैं एक कहानी "अप्पू की कहानी" का अवश्य उल्लेख करना चाहूँगा जिसके लेखक असमिया के नव कृष्ण महंत हैं। इस कहानी में बाल-मनोविज्ञान का विशेष ध्यान रखा गया है। एक बच्चे अजय के पिता हाथी के एक घायल बच्चे को घर पर ले आए। डॉक्टर ने उसका इलाज किया। एक निप्पल के माध्यम से पीने के लिए दूध दिया गया। हाथी-बच्चे ने ठीक होना शुरू कर दिया। अजय और उसने खेलना शुरू कर दिया। वास्तव में हाथी के बच्चे के शरारत भरे कारनामे बच्चों के लिए बहुत आकर्षक रूप में चित्रित किए गए हैं, भले ही हाथी एक व्यक्ति के रूप में नजर आता है। कहानी का अतिरिक्त आकर्षण हाथी के बच्चे का अपनी माँ से मिलने पर भावुक हो जाने का चित्रण है। हाथी का बच्चा अपनी माँ के साथ चल पड़ता है और अजय के पिता उसे नहीं रोकते। अजय उदास हो गया। एक दिन, हाथी का बच्चा अचानक प्रकट होता है और अजय तथा घर के सब लोग हैरान और खुश हो जाते हैं। बच्चे हाथी ने शिकारियों के हाथ से एक अन्य मजबूत हाथी के बचाव में मदद की। अजय के पिता और हाथी बहुत प्रसिद्ध हो गए। पिता की पदोन्नति हुई और सरकार ने उनका किसी और शहर में तबादला कर दिया। अब सवाल उठा कि हाथी के बच्चे को कहाँ छोड़ें। अंत में उन्हें एक अच्छा समाधान मिल गया। राष्ट्रपति की ओर से शिशु हाथी (अप्पू) को जापान के बच्चों के लिए उपहार में दे दिया गया।

प्रकृति के उपयोग करने का पारंपरिक तरीका जो लोककथाओं में मिलता है इस दौर के बच्चों को शायद आकर्षित न करे। यह भी सच है कि भारतीय साहित्य अलग-अलग दृष्टिकोणों से लिखा गया है। एक महान असमिया व्यक्तित्व और आधुनिक असमी साहित्य के अग्रणी लक्ष्मीनाथ बेजबरोआ (1868-1938) ने भी बच्चों के लिए कहानियाँ लिखी हैं जिनमें से कइयों का संबंध जानवरों से हैं। इस लेखक का दृष्टिकोण काफी आध्यात्मिक और घिसापिटा है जिसके चलते कहानियों में जैसा बोओगे वैसा काटोगे सरीखे उपदेश चिपकाए जाते हैं। फिर भी बच्चों को प्रकृति से पूरी तरह वंचित रखना बुद्धिसम्मत कदम नहीं होगा। इसके बजाय लेखकों को नए उपचार या ढंग पर काम करना चाहिए। उपचार या दृष्टिकोण से मेरा आशय अभिव्यक्ति के नए उपकरणों के साथ एक नई शैली के उपयोग से है। मैं इस बात से सहमत हूँ कि अंधविश्वासों, अलोकतांत्रिक मूल्यों, सामंती आउटलुक, मूर्खता और अनुचित को बढ़ावा देने वाले साहित्य की आज के बच्चे को कतई जरूरत नहीं है लेकिन उनकी दुनिया से उपर्युक्त अर्थात पशुओं, पक्षियों, कीटों आदि को आँख मूँदकर कर, महज विषय मानते हुए, बाहर की राह दिखा देना भी वांछनीय नहीं है। क्यों? क्योंकि हमें समझना चाहिए कि बच्चों और वयस्कों के लिए रचनात्मक लेखन (कविताओं, कहानियों, आदि) की प्रक्रिया लगभग एक ही है। रचना में विषय के अनुभव की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है जो मौलिकता की ओर ले जाती है। इस तथ्य को यूँ भी समझा जा सकता है कि अपनी बुनियादी दुनिया में एक जानवर या एक पक्षी या एक पेड़ या एक मौसम या राजा भी विषय होते हैं लेकिन वे रचनात्मक लेखन में वही नहीं रहते, कुछ और बन जाया करते हैं। कल्पना- शक्ति, एक नया उपचार या दृष्टिकोण, लेखक की दृष्टि, अभिव्यक्ति का नया तरीका आदि उन्हें किसी और रूप में ढाल दिया करते हैं जिसे मौलिक रचना का नाम दिया जा सकता है। एक और जरूरी बात। न केवल प्रकृति के संदर्भ में बल्कि किसी भी स्रोत-वस्तु के संदर्भ में लेखकों को ध्यान रखना चाहिए कि वे जो कुछ भी लिखें वह बच्चों के लिए विश्वसनीय अथवा भरोसेमंद होना चाहिए। वस्तुतः 'मौलिक रचना' को विश्वसनीयता और तर्क की नींव पर टिका होना चाहिए जिसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी योगदान होता है। अकल्पनीय कल्पना से बचना चाहिए। किसी भी जागरूक लेखक के लिए यह एक बड़ी चुनौती होती है। हाँ, विज्ञान साहित्य के नाम पर एक स्टीरियोटाइप नीरस शुष्क सूचनात्मक साहित्य के पक्ष में रचनात्मक कल्पना से समृद्ध बाल साहित्य के अभाव को स्वीकार नहीं किया जा सकता। बाल-साहित्य की प्रख्यात बंगाली लेखिकाओं आशापूर्णा देवी और लीला मजूमदार ने शिशुओं के लिए (जो किशोर नहीं हैं) बंगाली में बाल-साहित्य की उपेक्षा पर चिंता व्यक्त की है। उनके अनुसार इस के अभाव ने बंगाली बाल साहित्य में रहस्यमयी, साहसिक, विज्ञान कथा, और जानकारी की बाढ़ ला दी है। इसलिए, इस तरह का साहित्य ने बच्चों की कल्पना शक्ति को तिरोहित कर रहा है, और उनकी मासूमियत गुणवत्ता को धो डालने का खतरा बन रहा है। कहाँ है बाल-सुलभ भाव वाला बच्चा? कहा जाता है कि साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनुष्य में मानवता को बचाने के लिए है। उसी तरह हम कह सकते हैं कि बच्चों के साहित्य का मुख्य उद्देश्य बच्चे में बचपन की मासूमियत को बचाने के लिए होता है जिसे मनोविज्ञान, विज्ञान आदि के नाम पर तथाकथित कठोर वास्तविकताओं के बोझ से दबाया जा रहा है 'लोडिड' किया जा रहा है। उड़ीसा के बच्चों के प्रमुख लेखक मनोज दास के शब्दों में, "...कोई वैज्ञानिक या तकनीकी खोज या आविष्कार बुनियादी मानवीय भावनाओं, एहसासों और अनुभूतियों को नहीं को बदल सकता। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मूल्य को बदल सकते हैं, लेकिन चेतना में जमा विकासवादी मूल्य नहीं बदल सकते - मूल्य जो हमारे विकास के खाते के हैं।" बच्चों के एक बड़े हिंदी बाल लेखक और बाल हितैषी जयप्रकाश भारती के अनुसार, "बच्चों के साहित्य की मुख्य आवाज साहस, विश्वास, जीने की इच्छा और कठिनाइयों में संघर्ष करने की रही है।" बालसाहित्य ने न केवल मानव के प्रति संवेदनशीलता जागृत करने की भूमिका निभाई है बल्कि मनुष्य में जानवरों और पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता जागृत करने की एक बड़ी भूमिका भी निभाई है। तमिल कवियों की नई पीढ़ी में एक महत्वपूर्ण आवाज, मनुषिया पुथिरन (Manushiya Puthiran) सोचते हैं कि बच्चों को बच्चों के रूप में विकसित होना चाहिए। अच्छा है कि अब अनेक लेखक सहमत हैं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की मदद के साथ, कल्पना के पंखों की भूमिका, जिससे ताजगी और मौलिकता आती है, भी आज के बालसाहित्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसमें पशु और पक्षियों की महक वाला बालसाहित्य भी शामिल है। बेशक, जैसा बालसाहित्य भी लिखने वाले हिंदी के प्रमुख कथा लेखक अमृतलाल नागर का मानना है, सजग लेखकों के द्वारा अपने साहित्य में बच्चों जैसी ताजगी, ताजी लेकिन विश्वसनीय कल्पना के उपयोग से लाई जा सकती है। इस मान्यता का एक अच्छा सबूत अमृतलाल नागर की कहानी "अंतरिक्ष-सूट में बंदर" है। इस कहानी में, एक बंदर अंतरिक्ष की एक लड़की को अंतरिक्ष सूट पहनते और उतारते देखता था। वह एक अंतरिक्ष मशीन की मदद से पृथ्वी पर आई थी और जरूरत में उसकी मदद एक 'बाबा' (संत) ने की थी। एक दिन बंदर उस सूट को दूर ले गया और उसे पहन कर अंतरिक्ष मशीन को चला दिया। खैर, जैसे-तैसे बंदर बच गया। लड़की अंतरिक्ष के लिए चली गई। कुछ समय के बाद, वह अपने माता-पिता के साथ पृथ्वी पर आई और संत से भेंट की। उन्होंने संत को एक अंतरिक्ष-सूट पेश किया और अंतरिक्ष यात्रा का आनंद लेने का अनुरोध किया। लेकिन संत ने विनम्रता से कहा कि वह भारतीय बच्चों द्वारा अंतरिक्ष-सूट की खोज करने के बाद ही, भविष्य में, यात्रा का आनंद उठाएगा। कहानी में निःसंदेह एक ओर अपने बच्चों में राष्ट्र के लिए प्यार, मेहमानों की देखभाल, आत्मविश्वास और आस्था जैसे कई अन्य गुणों का समावेश हुआ है लेकिन उसमें उपयोग में लाई गई कल्पना भी कहानी का बहुत शक्तिशाली और केंद्रीय पक्ष है। आम तौर पर माना जाता है कि बंगला, कन्नड़ और मलयालम भाषाएँ विज्ञान कथाओं की दृष्टि से बहुत समृद्ध हैं लेकिन अब इस क्षेत्र में हिंदी भाषा का बालसाहित्य भी बहुत पीछे नहीं है। यहाँ मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा कि बालसाहित्य में वैज्ञानिक या तकनीकी उपकरण उतने मायने नहीं रखते जितना वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखता है। मैं अपनी ही कविता 'आग बुझाने वाला इंजन' को एक उदाहरण के रूप में पेश कर सकता हूँ। इस कविता में बच्चे चिड़ियाघर जाते हैं और वहाँ एक हाथी को देखते हैं। हाथी आगंतुकों के आने पर अपनी सूँड़ में पानी भर कर बारिश की तरह छोड़ता है। इस दृश्य को देख आनंद से भर कर एक बच्चा अपने भाई रंजन से कहता है देखो जानवरों का आग बुझाने वाला इंजन! 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण आज के कई हिंदी लेखकों के साहित्य में देखा जा सकता है। आज हिंदी के कितने ही बालसाहित्यकारों की रचनाओं में वैज्ञानिक दृष्टिकोण देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए हम मनोहर चमोली 'मनु' द्वारा लिखित जूँ से संबंधित एक कहानी "रखनी है साफ सफाई" पढ़ सकते हैं। इस कहानी में जूँ से संबंधित तथ्यात्मक ऐतिहासिक जानकारी भी है लेकिन लेखक ने उसे कुछ इस तरह बुना है कि कहीं भी वह जानकारी कहानी पर लदने नहीं पाई। एक लेखक यदि एक पशु के सूक्ष्म निरिक्षण को केंद्र में रख कर साहित्य-सृजन करता है तो वह भी विज्ञान कथा के दायरे में आ सकता है। प्रख्यात मराठी लेखक विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित कहानी "हमारी बिल्ली" ऐसी ही है। इस कहानी में, एक एक बहुत ही दिलचस्प तरीके से उत्सुक अवलोकन के आधार पर जानवरों के प्राकृतिक व्यवहार देख सकते हैं, हालाँकि इसमें और भी बहुत कुछ है। उदाहरण के लिए, एक टीवी के शीर्ष पर ताप का लुत्फ उठाने के लिए सोना पसंद करने वाली बिल्ली के बारे में लेखक ने लिखा है कि जैसे ही टी.वी. शुरू होता, बिल्ली उसके शीर्ष पर चढ़ जाती और बिना किसी दिक्कत के सोने का आनंद लेती। कार्यक्रमों से उसे कुछ लेना-देना नहीं था। गुणवत्ता, चरित्र, दिशानिर्देश, टीआरपी आदि को हमारे लिए छोड़ दिया था।

भारतीय भाषाओं में पशु-पक्षियों से संबद्ध बाल-गीत बहुत लोकप्रिय हैं और बच्चों को, अपने मनोरंजन के लिए वे बहुत प्यारे हैं। उनमें से कुछ का स्वाद चखिए : क्यों है मुँह लाल ओ मिट्ठू पोपट/ कहाँ से खाया पान/ ओ मिट्ठू पोपट (मराठी), 'ओह, बिल्ली दिखती तो हो बाघ सरीखी/ पर घंमंड न करना हो तुम वैसी/ जानता ताकत तुम्हारी/ पकड़ सकती बस चुहिया बेचारी' (कन्नड़, वासुदेवैया (Ch. Vasudevayya), कितनी भोली कितनी प्यारी/ सब पशुओं में न्यारी गाय/ सारा दूध हमें दे देती/ आओ इसे पिला दें चाय (हिंदी, शेरजंग गर्ग)। छोटे बच्चों में लोकप्रिय अन्य कविताओं के लिए, हम बंगाली लेखक जोगिंद्रनाथ सरकार द्वारा रची गई पशु-कल्पनाओं का उल्लेख कर सकते हैं। उनकी कविता 'श्री टिड्डा की शादी' यूँ है - 'आह, यह दिन टिड्डे की शादी का / पहन के टोपी अरे छिपकली/ ड्रम बजाती / कहार बने हैं देखो तिलचट्टे/ उठा रहे हैं अरे वे डोली...।' हिंदी के अग्रदूतों कवियों में से एक विद्याभूषण विभु की कविता 'घूम हाथी झूम हाथी' संगीत से लबालब भरी हुई है और आज भी बच्चों द्वारा पसंद की जाती है। आप भी थोड़ा आनंद लीजिए - 'हाथी झूम-झूम-झूम/ हाथी घूम-घूम/ राजा झूमे रानी झूमे, झूमे राजकुमार/ घोड़े झूमे फौजी झूमे/ झूमे सब दरबार/ झूम झूम घूम हाथी, घूम झूम-झूम हाथी!/ हाथी झूम-झूम-झूम!/ हाथी घूम-घूम-घूम।' हिंदी कवि बालस्वरूप राही की कविता 'ऊँट' भी मस्ती से भरी है जिसमें मासूमियत के साथ ऊँट के अजीब आकार को पेश किया गया है। हिंदी बाल साहित्य के महान परदादा, निरंकार देव सेवक ने जानवरों और पक्षियों को पात्र बनाकर अनेक सुंदर कविताएँ लिखी हैं। उनकी ऐसी कविताओं में से एक है - 'चिरैया' (दो चिड़ियों की बात) : कितना अच्छा यह छोटा घर/ बच्चा एक बहुत ही सुंदर/ रहता है इस घर के अंदर/ मुझे बड़ा प्यारा लगता है/ नाम न जाने उसका क्या है/ मैं तो उससे ब्याह करूँगी/ उसको टॉफी-बिस्कुट दूँगी। मैं, मलयालम भाषा के कवि, कुमारन आशान (1873-1024), जिन्हें पहला आधुनिक मलयालम कवि माना जाता है, की भी एक भव्य बिंब संपन्न सुंदर कविता 'तितली' का आशय उद्धृत करना चाहूँगा : 'बच्चे माँ से कहते देखो/ इतने इतने सुंदर फूल/ वहाँ लता से आते देखो/ कहती माँ लेकिन बच्चे से/ नहीं, नहीं हैं फूल ये बेटे/ ये तितलियाँ सुंदर सुंदर। इस छवि ने मुझे एक और संदर्भ में रस्किन बांड (1934-2014 ) द्वारा किए गए एक चित्रात्मक विवरण की याद करा दी है। हम जानते हैं कि पेड़ पक्षियों और जानवरों के अभिन्न अंग हैं। आदमी उन्हें स्वार्थी मकसद के लिए काटता रहता है और जानवरों और पक्षियों के हित को हानि पहुँचाता है। अपनी किताब 'ट्रीज स्टिल ग्रो इन देहरा' में उन्होंने लिखा है, "राकेश मेपल-पेड़ों को तितलियों के पेड़ कहता है क्योंकि जब पंखों वाला बीज गिरते हैं तो वे हवा में तितलियों की तरह स्पंदन करते हैं।" अनुमान के लिए ये कुछ उदाहरण ही दिए हैं मैंने। वरना मैं कई और कवियों की कितनी ही और सुंदर कविताएँ उद्धृत कर सकता हूँ। यहाँ इतना और कह दूँ कि विशेष रूप से ग्रामीण और आदिवासी भारत में जानवरों मसलन कुत्ते और बिल्लियों का संबंध समुदाय से होता हैं और समुदाय ही उनका ध्यान रखता है।

कह सकता हूँ कि इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जानवर और पक्षी हमेशा बच्चों के आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनके आकार, उनके व्यवहार, उनकी आवाज आदि ने उन्हें सदा चकित किया है। वे बच्चों के लिए मनोरंजन की वस्तुएँ बन जाते हैं। बच्चों को उनकी नकल उतारना पसंद है और वे उनके बारे में कुछ नया भी सोचते रहते हैं। इस बात का सबूत हमें उनकी ड्राइंग की कापियों से मिल सकता है। भारतीय लेखक बच्चों की इस रुचि को समझते हैं और ऐसे साहित्य-सृजन की कोशिश करते हैं जो साथी भाव के साथ जानवरों, पक्षियों आदि के प्रति उनके प्यार और मनोरंजन में बढ़ोतरी कर सके। उन्होंने अपने साहित्य में जानवरों और पक्षियों को त्योहारों और कई अन्य घटनाओं के प्रतिभागियों के रूप में चित्रित किया है। आम तौर पर, भारतीय लेखकों ने एहसास किया है और अपने साहित्य में अभिव्यक्त भी किया है कि आदमी जानवरों के प्रति क्रूर रहा है। वह अकेला ऐसा जानवर है जो अपनी खुशी के लिए शिकार करता है जबकि दूसरे जानवर अपनी भूख के लिए शिकार करते हैं। अंग्रेजी की लेखिका पारो आनंद ने इस तथ्य को अपनी कहानी 'नाउ आइ एम ओल्ड' के माध्यम से व्यक्त किया है। इस कहानी में एक शेर आत्मकथात्मक शैली में आदमी की युद्ध प्रियता और उसकी क्रूरता उजागर करते हुए बताता है कि उसकी लड़ाई जानवरों की तरह भोजन के लिए नहीं होती। बेशक, अपने साहित्य के माध्यम से लेखक बच्चों को जीवन के कुछ अच्छे तरीके भी सुझा सकते हैं लेकिन उनका इतना ढोल पीटकर नहीं कि बच्चे भाग ही जाएँ। गनीमत है कि समकालीन भारतीय बालसाहित्य में इस ओर ध्यान रखा जा रहा है। वास्तव में, आज के भारतीय लेखक, नैतिक या शिक्षा या उपदेश को थोपने के विरोध में हैं और इस प्रकार के थोपने को पुरानी शैली मानते हैं। इन्हें भीतरी तौर पर बुना होना चाहिए और रचना में सहज दिखना चाहिए। इसके अलावा, मनोरंजन या खुशी पर जोर अधिक दिया जा रहा है। उदाहरण के रूप में, मैं उड़िया लेखक दास बेनहूर की कहानी 'शाबास कोयल!' को पढ़ने की सलाह दूँगा। संवाद-शैली में लिखी गई यह एक छोटी कहानी है। कहानी यूँ है -

एक सुबह जब सूरज अभी भी आधा सो रहा था, एक कोयल आम के पेड़ पर गा रही थी।

"कू-ऊ, कू-ऊ!" कोयल ने गाया।

तभी एक छोटी गौरैया ने नीचे उड़ान भरी और कोयल की बगल में बैठ गई।

"चलो चलें, आओ!" गौरैया ने कोयल से कहा।

"कहाँ जाना है?" कोयल ने पूछा।

"ओह। कहीं नहीं!" गौरैया ने कहा। "हम तो बस, चारों ओर घूमेंगे, खेलेंगे, मजा करेंगे! "

कोयल ने कहा "नहीं, मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकती गौरैया, यह मेरे गाने के अभ्यास करने का समय है।"

"इससे क्या अच्छा होगा?" गौरैया ने पूछा, "मैं तो कुछ भी अभ्यास नहीं करती, और मुझे कोई समस्या नहीं है।"

कोयल हँसी और कहा, "गौरैया हर चीज का एक समय होता है। गायन के अभ्यास और खेलने के लिए एक समय होता है। मुझे तुम्हारी बात क्यों सुननी चाहिए? लोग मुझे प्यार करते हें क्योंकि मैं मीठा गा सकती हूँ, और क्योंकि मैं काफी समय अभ्यास को देती हूँ! तुम्हें जो पसंद हो कर सकती हो, लेकिन मुझे वह करने दो जो मुझे करना चाहिए! अब तुम जाओ।"

और तब आम के पेड़ की एक नाजुक पत्ती ने कहा : "शाबास, कोयल तुमने ठीक कहा!"

गौरैया ने कुछ भी नहीं कहा और उड़ गई।

और कोयल वापस अपने गायन के अभ्यास में लग गई।

"कू-ऊ! कू ऊ!"

हम देख सकते हें कि इस कहानी में सीख ध्यान देने योग्य है, लेकिन यह कहानी पर जबरन लदी हुई नहीं लगती। और दूसरे की सोच में कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं प्रतीत होती। यह एक आधुनिक दृष्टिकोण है।

खैर, आज हम सब जानते हैं कि प्रकृति (पेड़, फूल, पक्षी, पशु, सूर्य, चंद्रमा आदि) नए विषयों के साथ-साथ बच्चों की दुनिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बच्चा जानवरों, पक्षियों, फूलों आदि के साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश करता है। मैं यह भी जोड़ सकता हूँ कि एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में जानवरों की 68,300 प्रजातियाँ हैं जिनमें 60,000 कीड़े, 1600 मछली की प्रजातियाँ और 372 जानवरों की प्रजातियाँ हैं। केवल हमारे देश में पाया जाने वाला एक लुप्तप्राय जानवर काला हिरण है। काला हिरण खुले मैदानों का प्राणी है और जंगलों या पहाड़ी क्षेत्रों से वह बचता है।

भारतीय बालसाहित्य में जानवरों और पक्षियों से संबंधित बात जब भी शुरू होती है, हम संस्कृत और पाली भाषा में लिखे हमारे महान विश्व प्रसिद्ध क्लासिक्स का कुछ उल्लेख किए बिना नहीं रह सकते। ये सभी भारतीय भाषाओं के बालसाहित्य के स्रोत के रूप में माने जाते हैं। ये क्लासिक्स हैं - 'पंचतंत्र' (लगभग 2000 साल पहले विष्णु शर्मा द्वारा लिखित यह कृति 5 भागों - मित्रभेद, मित्रलाभ, संधि-विग्रह, लब्ध प्रणाश और अपरीक्षित कारक (भगवान सिंह के अनुसार - 'कान भरने की कला', 'मित्र लाभ', 'वैर साधने की विद्या', 'धीरज कबहुँ न छाड़िए','बिन जाँचे परखे करे सो पाछे पछताए)'- में विभाजित है तथा इसकी कहानियों में मानव पात्रों के साथ खटमल (अग्निमुख) और जूँ समेत कितने ही जानवर पात्रों की भी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। इन कहानियों के माध्यम से छह महीने में एक राजा के अनभिज्ञ या मूर्ख युवा राजकुमारों को मुख्य रूप से राजनीति में शिक्षित करने का उद्देश्य मिलता है।), 'हितोपदेश'( पंचतंत्र से थोड़े हेरफेर के साथ नारायण पंडित द्वारा लिखित), "कथासरित्सागर" (कश्मीर निवासी सोमदेव द्वारा रचित) संस्कृत में हैं और "जातक" (बोधिसत्व के पिछले जन्मों के विषय से संबद्ध कहानियाँ हैं जिन्हें मानव और पशुओं के रूप में रचा गया है।) पाली में है। इनके अतिरिक्त महाभारत और रामायण जैसे महान महाकाव्यों ने भी जानवरों और पक्षियों से संबद्ध बाल कहानियों के बड़े स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यदि हम बच्चों के सम्पूर्ण साहित्य को देखें, तो पाएँगे कि हम इसे दो व्यापक श्रेणियों के अंतर्गत रख सकते हैं। पहली श्रेणी के तहत हम ऐसे साहित्य को रख सकते हैं जिसे बच्चों के लिए विशेष रूप से नहीं लिखा गया था भले ही कुछ संपादन के बाद उसमें बच्चों का मनोरंजन और उन्हें शिक्षित करने की क्षमता आ जाती है और इस तरह वह आज के बच्चों के लिए प्रासंगिक भी बन जाता है। रामायण में एक कहानी है जिसमें एक कुत्ते की बुद्धिमत्ता इस रूप में चित्रित की गई है कि बड़े-बड़े सभासदों की बुद्धिमत्ता उसके सामने मंद ही साबित होती है। अपनी तरह से कहता हूँ - एक क्रोधी ब्राह्मण (पुजारी) के द्वारा कुत्ते के साथ दुर्व्यवहार किया गया, उसका अपमान किया गया, उसे पीटा गया जबकि उसकी कोई गलती नहीं थी। वह बस, बिना चाहे, पुजारी के रास्ते पर आ गया था। कुत्ता न्याय के लिए, राजा राम के पास गया। पुजारी को बुलाया गया। ब्राह्मण का पक्ष सुनने के बाद, राम ने उसका अपराध तय किया क्योंकि उसका किया क्रोध के कारण हुआ था। राम ने अपने दरबार के सदस्यों से सजा के लिए सलाह की लेकिन परंपरा के अनुसार ब्राह्मण के लिए सजा न होने के कारण कोई भी सुझाव न दे सका।राजा ही सजा दे सकता था। तब कुत्ते को ही सजा सुझाने के लिए कहा गया। कुत्ते ने पुजारी को एक शिक्षण संस्थान का सर्वोच्च पद आवंटित करने अनुरोध किया। हर कोई ऐसी सजा के सुझाव से चकित था। उनकी निगह में कुत्ता तुच्छ बुद्धि ही निकला। राजा राम अपने दरबार के सदस्यों की अबोधता पर हँसे और कहा कि कुत्ता बहुत बुद्धिमान और ज्ञानी है। उन्होंने कहा कि कुत्ते को ब्राह्मण का मनोविज्ञान समझ में आ गया है। तब उन्होंने कुत्ते से सजा के पीछे का रहस्य प्रकट करने के लिए अनुरोध किया। कुत्ते ने बताया कि वह भी पिछले जन्म में एक संस्थान का प्रमुख था। उससे भी क्रोधवश, अनजाने में एक गलती हो गई थी जिसके कारण वह इस जन्म में एक कुत्ता है। हर कोई कुत्ते की बुद्धि पर आश्चर्यचकित था। यदि इस कहानी को प्रतीकात्मक मानते हुए सामाजिक रिश्तों और मनुष्य स्वभाव के रूप में व्याख्यायित करेंगे तो इसे वर्तमान भारतीय समाज के लिए भी काफी प्रासंगिक पाएँगे। दूसरी श्रेणी में वह बालसाहित्य आता है जो बच्चों के लिए विशेष रूप से लिखा गया है। आधुनिक बालसाहित्य में हम दोनों श्रेणियों का साहित्य देख सकते हैं। उदाहरण के लिए जहाँ एक ओर प्रमुख हिंदी कथा लेखक प्रेमचंद की कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जो हैं तो वयस्कों के लिए लेकिन जिनका आनंद बच्चे भी उठा सकते हैं, यद्यपि उनमें कुछ संपादन की आवश्यकता होगी अन्यथा मेरी राय में उन्हें बच्चों की कहानियों के रूप में नहीं माना जाना चाहिए, वहाँ दूसरी ओर उन्होंने बच्चों के लिए विशेष रूप से "कुत्ते की कहानी", जिसे हिंदी का पहला बाल उपन्यास कहा जा सकता है और "जंगल की कहानियाँ" शीर्षक से बाल कहानियों की रचना की है जिनमें जानवरों की प्रमुख भूमिका देखी जा सकती है। हाँ, मैं एक कहानी "मगरमच्छ का शिकार" की सराहना नहीं कर सका। इसमें कोई शक नहीं कि कहानी रोमांच और साहस से भरी है और मगरमच्छ का शिकार करना भी सिखा सकती है, लेकिन, बच्चों की दृष्टि से, शिकार एक मासूम मगरमच्छ का किया गया है और उसके लिए एक बकरी पर क्रूरता दिखाई गई है। लेकिन एक और कहानी "मिट्ठू" है जो एक बंदर की अच्छी कहानी है। एक सर्कस में बंदर आता है। बच्चे गोपाल को वह बहुत पसंद आता है। वह उसे खाने को केले और अन्य फल देता है। एक दिन सर्कस वहाँ से जाने लगता है। लेकिन फिर घटनाचक्र कुछ ऐसा घटता है कि मालिक गोपाल को बंदर दे देता है और वे दोनों बहुत खुश हो जाते हैं। एक जानवर और इनसान के बीच आपसी प्यार, दोस्ती की भावना, दायित्व-निर्वाह की यह एक महत्वपूर्ण कहानी कही जा सकती है। कहानी का संदेश भी बहुत ही सहज ढंग से उभरा है। प्रेमचंद की मान्यता थी कि बच्चों को अपने जीवन को खुद बचाने की शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें अच्छे और बुरे के बीच अंतर करने का ज्ञान होना चाहिए। यदि हम अन्य भारतीय भाषाओं के अन्य दिग्गज लेखकों की राय जानेंगे तो पता चलेगा कि वह अलग नहीं है। गुजराती के बहुत ही लोकप्रिय बाल साहित्यकार गिजू भाई (1885-1939) के अनुसार भी बच्चे का व्यक्तित्व स्वतंत्र होना चाहिए। उनके शब्दों में, "विद्वानों के रूप में कहानियाँ मत कहो। (बच्चों में) ज्ञान की कील मत ठोको। लादो मत। यह एक बहती गंगा (नदी) है। सबसे पहले आप उस डुबकी लगाओ और फिर बच्चों को स्नान करने दो।" मैं यहाँ एक गैर भारतीय महान किताब 'ईसप की दंतकथाएँ' का भी उल्लेख कर सकता हूँ जिसकी कहानियाँ पंचतंत्र की कहानियों से बहुत मिलती हैं और उनका बहुत पहले कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। यह ग्रीक के कहानी वाचक ईसप की कहानियों का एक संग्रह है। ईसप प्राचीन यूनान में एक गुलाम था। वह जानवरों और लोगों, दोनों का एक गहरा पर्यवेक्षक था। उनकी कहानियों में अधिकांश पात्र जानवर हैं जिनमें से कुछ में मानव की विशेषता लिए हुए हैं और बोलचाल तथा भावनाओं में मानव लगते हैं। प्रत्येक कहानी में एक नैतिक सीख दी गई है। ऐसा विश्वास है कि ईसप, 620 और 560 ईसा पूर्व के बीच प्राचीन ग्रीस में हुआ था। इन कहानियों ने भारतीय बच्चों के लेखकों को भी प्रभावित किया है। हम आसानी से कह सकते हैं कि एक ओर पंचतंत्र, कथासरित्सागर, जातक कथाएँ आदि ने और दूसरी ओर दुनिया की कई अन्य भाषाओं के क्लासिक्स तथा अनुवाद में उपलब्ध पश्चिमी बालसाहित्य ने भारतीय बच्चों के साहित्य को प्रभावित किया है। रूस, चीन, जापान और कोरिया के साहित्य ने भी भारतीय बाल साहित्य को प्रभावित किया है।

मुझे कहना होगा कि कुछ लेखक जिनमें कुछ प्रतिष्ठित भी हैं, चाहे बहुत कम, आज भी पंचतंत्र, कथासरित्सागर आदि के सीधे प्रभाव में लिख रहे हैं। कभी-कभी तो उन्होंने उन कहानियों के विचार और विवरण की नकल अपने नाम से कर ली है जो मेरी विनम्र राय में दुर्भाग्यपूर्ण है। स्रोत पुस्तकों को श्रेय दिया जाना चाहिए। अन्यथा प्रबुद्ध पाठकों में एक प्रतिकूल प्रतिक्रिया जन्म ले सकती है। उदाहरण के लिए हम सम्मानित उड़िया लेखक मनोज दास की कहानियों "गुफा बोल" और "संदूक में दुल्हन" का जिक्र कर सकते हैं जो उनकी पुस्तक "संदूक में दुल्हन तथा अन्य कहानियाँ" में संकलित हैं। पहली कहानी पंचतंत्र में उपलब्ध है और अन्य कहानी कथा सरित्सागर में है। तुलना करने पर पता चल जाएगा कि कुछ विस्तार को छोड़कर कुछ नया नहीं है। हालाँकि, शेर, सियार और आदि जानवरों की भूमिका बहुत ही रोचक बन पड़ी है। एक और उदाहरण किरण तामुली द्वारा लिखित एक असमिया कहानी "साहा अरु कछार दौर (खरगोश और कछुआ की दौड़) है। यह कहानी ईसप की दंतकथाओं में से एक कहानी "कछुआ और खरगोश" पर आधारित है जिसके द्वारा सहज पके सो मीठा होए की सीख दी गई है और जो भारतीयों बच्चों के बीच बहुत लोकप्रिय है। लेकिन यहाँ थोड़ी भिन्नता भी है। एक दिन एक खरगोश अपनी तेज चाल को लेकर डींग मारता है। यहाँ तक कि वह इतनी धीमी गति से चलने वाले कछुए पर हँसा भी। कछुए ने अपने लंबी गर्दन बाहर निकल कर खरगोश को दौड़, के लिए चुनौती दे दी। खरगोश को फिर हँसी आ गई। बहुत तेजी से चल सकने वाला गर्वीला खरगोश बहुत धीमे चलने वाले कछुए से हार गया। खरगोश ने सोचा था कि धीमे चलने वाले कछुए के उसके निकट आने से पहले वह एक झपकी ही ले ले। वह झपकी लेता रह गया और कछुआ उससे आगे निकल कर दौड़ जीत गया। उचित यह है कि लेखक ने सबसे पहले पुरानी कहानी का संकेत देते हुए उसे श्रेय दिया और तब पुरानी कहानी के प्रमुख साँचे को वैसा ही रखते हुए इस तरह से वर्णन और कोण बदला कि यह आज के बच्चों के लिए एक ताजा कहानी बन गई। इस कहानी में खरगोश ने पुरानी कहानी की तरह, दौड़ के दौरान नींद लेने की पहले की सी गलती न करने की बात सोची थी लेकिन इस बार उसकी हार का कारण उसके द्वारा दौड़ के लिए खुद को तैयार करने के लिए अधिक से अधिक खाना, मोटा हो जाना और चक्कर आना सिद्ध हुए। कहानी में गिलहरी, भालू, हिरण, शेर, हाथी, मगरमच्छ, बंदर, साही आदि जानवरों की सक्रिय भागीदारी (जो मूल कहानी में नही है) बहुत ही रोचक है। प्रमुख हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने भी पशु और पक्षियों से संबंधित कुछ बाल कहानियाँ लिखी है, और उन पर भी क्लासिक्स का सीधा प्रभाव देखा जा सकता है। कुछ कहानियाँ तो पंचतंत्र की कहानियों के काफी समान हैं। लेकिन किंचित नई शैली के उपयोग के कारण वे दिलचस्प बन गई हैं। विष्णु प्रभाकर का मुख्य योगदान एसियाड खेलों से जुड़े 'अप्पू', हाथी के प्रतीक के आधार पर रचित एक चरित्र 'गजानन' है। गजानन की कहानियाँ बहुत मजेदार हैं। यह चरित्र भी बच्चों के लिए कुछ उपयोगी बातें साझा करता है। कभी कभी लेखकों ने पंचतंत्र की कालजयी कहानियों के पात्रों की झलक का उपयोग करते हुए उन्हें एक नए रूप में भी उतारा है। उदाहरण के लिए हम, हिंदी में विनायक द्वारा लिखित जानवरों और पक्षियों से संबंधित एक सुंदर उपन्यास "नदी और जंगल" का उदाहरण ले सकते हैं। हल्के मूड में लिखी गई इस कहानी में इस दौर की एक शेरनी मजाक में मगरमच्छ को उसके पूर्वज की याद दिलाती है जिसने रोज रोज मधुर फल खिलाने वाले मित्र बंदर को पत्नी की उसका कलेजा खाने की इच्छा को पूरी करने के लिए उसे अपने घर ले जाने के लिए फुसलाया था लेकिन अपनी सूझ-बूझ के कारण बंदर बच गया था। यहाँ पुरानी कहानी का केवल एक संकेत के रूप में इस्तेमाल किया गया है। राजस्थान से, युवा पीढ़ी के एक और हिंदी लेखक, दिनेश पांचाल ने भी अपने उपन्यास 'कछुए की उड़ान' में इसी कहानी का उपयोग किया है, लेकिन थोड़े बदले हुए रूप में। वास्तव में, मुख्य रूप से इन उपन्यासों में जानवर अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं और इस प्रकार ये जानवरों की समस्याओं को दर्शाते हैं। पशु-पक्षियों की अपनी दुनिया और महत्व है और उन्हें संवेदनशीलता की जरूरत है। संक्षेप में, इतना और कह सकता हूँ कि उपर्युक्त क्लासिक्स की कहानियों से प्रेरित बाल साहित्य में स्थानीय रंग की ब्रश का भी उपयोग किया गया है और समर्थ लेखकों ने स्रोत सामग्री का उपयोग प्रभावी ढंग से किया है।

यदि हम भारत की प्रमुख भाषाओं मसलन असमी बंगाली, मराठी, तमिल, कन्नड़, हिंदी, मलयालम, उड़िया आदि के आधुनिक बाल साहित्य के इतिहास पर नजर डालें (अपने वास्तविक अर्थों में) तो हम पाएँगे कि इसका प्रारंभ 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ में हुआ था। कुछ अन्य भाषाओं में यह बाद में शुरू हुआ था। उदाहरण के लिए एक उत्तर-पूर्व की भाषा मणिपुरी में, मुद्रित रूप में बाल साहित्य की जरूरत 1940 के दशक से 1950 के दशक में महसूस होने लगी थी। 1947 के बाद बाल साहित्य की अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। प्रमुख भाषाओं के मामले में, बालसाहित्य की शुरुआत के कारणों में से एक शिक्षा के लिए पाठ्य पुस्तकों की तैयारी की जरूरत था। ईसाई मिशनरी स्कूल स्थापित किए गए और उन के कारण नए प्रकार की शिक्षा प्रणाली ने नई शैली की कहानियाँ लिखने के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा, कवि मणि देसीकविनयगम पिल्लै (Kavi Mani Desikavinayagam Pillai) और सुब्रमण्यम भारती (Subramania BharatI),जो तमिल आधुनिक लेखकों की सूची में सबसे ऊपर हैं, ने समकालीन बाल कविता को नेतृत्व प्रदान किया,। सच में तो, शास्त्रीय और पहले के बाल साहित्य के श्रेष्ठ हिस्से के प्रति बिना किसी पूर्वाग्रह के कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद के भारतीय बाल साहित्य में बच्चों के अनुकूल ऐसा साहित्य लिखा गया है जो पुराने साहित्य की तरह उपदेशात्मक नहीं है और जिसमें जानवरों और पक्षियों आदि से संबंधित साहित्य भी शामिल है। हिंदी के महान लेखक और संपादक स्व. जयप्रकाश भारती ने उचित ही घोषित किया था कि 1970 के बाद का युग हिंदी बाल साहित्य का स्वर्णिम दौर है। कई अन्य भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य के लिए भी हम ऐसा कह सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें बच्चों को शास्त्रीय (classical) बाल साहित्य से वंचित रखना चाहिए। अब भारत में उत्तम कोटि का बाल साहित्य उपलब्ध है जो विश्व की किसी भी भाषा के बाल साहित्य से टक्कर ले सकता है।

संस्कृत की तरह, तमिल भी एक प्राचीन भारतीय भाषा है। एक प्राचीन महिला कवि औवैयार (Avvaiyyar) तमिल बाल साहित्य की जननी मानी गई है जैसे पंजाबी के मामले में गुरु नानक और अमीर खुसरो तथा सूरदास हिंदी के मामले में। औवैयार (Avvaiyyar) ने नैतिकता आदि की शिक्षा दी।

बंगाली में, जोगिंद्रनाथ सरकार द्वारा 1891 में लिखित कहानियों की पुस्तक 'हाँसी और खेला' (हँसना और खेलना) ने पहली बार कक्ष-कक्षा-परंपरा को तोड़ा और यह बच्चों के लिए पूरी तरह मनोरंजनदायक बनी। संयोग से कुछ सीख भी लेना एक अतिरिक्त लाभ था। रवींद्रनाथ टैगोर ने इस किताब के बारे में, 1893 में साधना में लिखा था - "यह पुस्तक छोटे बच्चों के लिए है। बच्चों को ऐसी पुस्तकों की जरूरत है, हमारी सभी बाल पुस्तकें कक्षा में पढ़ाने के लिए होती है। उन में कोमलता या सुंदरता का कोई निशान नहीं होता...।" यह टिप्पणी भारतीय लेखकों के लिए एक नई प्रेरणा और दिशा था। बंगाली विद्वान और लेखक, श्री शेखर बसु के अनुसार, "कलकत्ता स्कूल पाठ्यक्रम सोसायटी की स्थापना 1817 में हुई थी। इसके द्वारा लेखकों को जुटाया गया और नव-स्थापित मिशनरी स्कूलों के लिए पाठ्य पुस्तकें लिखवाई गईं। 1818 में प्रकाशित नीतिकथा जिसमें नॆतिक पाठ था, बंगाली में पहली पाठ्यपुस्तक मानी गई। बाल साहित्य को ईश्वर चंद्र विद्यासागर के रूप में अपने समय का एक दिग्गज व्यक्तित्व मिला। उन्होंने बच्चों के लिए स्पष्ट अर्थ वाली, अच्छी तरह से बुनी, आकर्षक बंगाली वार्ता संभव की। रवींद्रनाथ टैगोर के साथ बंगाली बच्चों के साहित्य में स्वर्ण युग उभरा। टैगोर ने जो कहानियाँ लिखीं वे नैतिक शिक्षा से मुक्त थीं। खुशी के लिए पढ़ना एक गतिविधि बन गई।" (आस्पैक्ट्स ऑव चिल्ड्रन'ज लिटरेचर, Volume II, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया)। उन्हें पढ़ाने के लिए पाठ्य पुस्तकों वाला बाल लेखन को उनके आनंद के लिए उनके दोस्त के रूप में लिखे साहित्य से अलग किया गया। मैं एक कहानी की ओर आपका ध्यान आकर्षित कर सकता हूँ जिसके माध्यम एक गैर शैक्षिक और शैक्षणिक कहानी का अंतर समझ में आ सकता है। कहानी हिंदी लेखक प्रभात द्वारा लिखित 'ऊँट के फूल' है। संक्षेप में, इस कहानी में, एक दिन, एक ऊँट विभिन्न फूलों के एक गाँव में चला गया। अजीब प्राणी को देखकर एक प्रकार फूल ने उस से पूछा, "आप क्या हैं और किस दुनिया से आए हैं? फूलों की दुनिया को छोड़कर मुझे किसी भी दुनिया को पता नहीं है? " ऊँट ने कहा, "मैं इसी दुनिया का हूँ? " फूल फिर पूछा, "आप इस दुनिया के हैं तो मुझे बताओ आप किसके फूल हैं?" एक लंबी चर्चा के बाद फूल ऊँट को समझा सका कि वह ऊँट का फूल है। सबको बताने के लिए ऊँट बड़ी खुशी के साथ अपनी बस्ती में गया। यह कहानी आश्चर्य और कल्पना का एक नए प्रकार का आनंद देने में अद्वितीय और सक्षम है। एक और प्रसिद्ध कहानी है "और बल्लू दादा को छुड़ा लिया गया" जिसके लेखक दिविक रमेश हैं। इसमें जंगल के जानवर शिकारियों के द्वारा पकड़ लिए गए उनके और उनके बच्चों के अत्यंत प्रिय और हितैषी हाथी, बल्लू दादा को पूरी सूझ-बूझ के साथ छुड़ाने की दिलचस्प कहानी है। पशुओं और पक्षियों आदि से उनकी क्षमताओं और आदतों के अनुसार काम लिया गया है। मसलन चील से ऊँचे ऊड़ने और दूर से देखने का, चूहों से बल्लू दादा की रस्सियों को काट डालने का, बंदर से छीनने का काम लिया गया है। इसी लेखक का राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा प्रकाशित एक नाटक "बल्लू हाथी का बालघर" भी है जिसमें और विस्तार से इसी प्रकार का आनंद लिया जा सकता है। प्रख्यात बांग्ला लेखक लीला मजूमदार (1908-2007) ने भी पशुओं, पक्षियों और कीड़ों आदि से संबंधित बहुत ही कलात्मक और सुंदर कहानियाँ लिखी हैं। उन्होंने तथ्यात्मक ज्ञान साझा किया है। उनका दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक है। मैं उनकी पुस्तक 'बड़ा पानी' (Large Water) से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करता हूँ - "कानू ने कहा, मकड़ियाँ बहुत बुरी हैं, वे मक्खियों को खाती हैं। चिड़िया भी खराब हैं, वे कीड़े खाती हैं। दादा ने जबाब दिया - छोटे बच्चे भी बुरे हैं, वे भी तो मछली, चिकन और बकरी खाते हैं। दूध पीओ और चुपचाप सो जाओ।" इस कहानी में एक तार्किक उपचार देखा जा सकता है।

भारतीय भाषाओं के समकालीन बाल साहित्य में जानवरों और पक्षियों के अस्तित्व की शैलियों और विभिन्न रूपों को समेटने से पूर्व, मैं साहित्य के कुछ और बढ़िया टुकड़े प्रस्तुत करना चाहता हूँ। सबसे पहले साहित्य को अद्भुत आविष्कारक प्रोफेसर शोंकु (Shonku) जैसा चरित्र देने वाले विज्ञान कथाओं के बंगाली लेखक सत्यजीत रे (महान लेखक उपेंद्रकिशोर के पौत्र) की कहानी 'हँसनेवाला कुत्ता' (Laughing Dog) की बात करूँगा। उन्होंने एक और चरित्र फेलुदा (काल्पनिक निजी अन्वेषक) भी दिया है। फेलुदा की विशिष्ट उपस्थिति उनकी बहुत प्रसिद्ध कहानी "टाइगर की खोज" कहानी में भी देखी जा सकती है। मैं बताना चाहूँगा कि बांगाली बाल साहित्य के क्षेत्र में उपेंद्रकिशोर के परिवार का योगदान किसी भी अन्य एकल परिवार की तुलना में अधिक और विविध है। यह कहानी अनेक स्तरों पर चलती है। यह व्यंग्य, रूपक, हास्य आदि का स्वाद देने में सक्षम है। जब पाठक असमंजस बाबू को अपने कुत्ते-ब्राऊनी के हँसने पर बार बार गंभीर होते देखते हैं तो वे भी बिना हँस नहीं रह सकते। सबसे पहले तो कहानी का शीर्षक ही बच्चों को आकर्षित करता है। खुद मानव चरित्र असमंजस (रहस्य) का नाम ही बहुत विचारोत्तेजक है। कुत्ता भी हँसता है, यह एक नई कल्पना है। यह जानकारी कि कुता भी हँसता है लोगों के लिए आश्चर्य की बात थी। आदमी को छोड़कर, उनकी समझ के अनुसार, अन्य कोई प्राणी नहीं हँसता। एक बार असमंजस ने अपने जूते से एक तिलचट्टे पर प्रहार करने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। इस पर, कुत्ता आनंद के साथ जोर से हँस पड़ा। इस स्थिति में हम मनुष्य भी हँस सकते हैं। भले ही लेखक ने कुत्ते पर इस कल्पना को आरोपित किया है लेकिन आरोपण इस रूप में हुआ है कि कल्पना स्वाभाविक और भरोसेमंद होकर सुखद लगती है। असमंजस कुत्ते से बात करता है लेकिन कुत्ता मनुष्य की भाषा का उपयोग नहीं करता जो कहानी का एक और सौंदर्य है। कुत्ते के हँसने से संबंधित अनुसंधान के विभिन्न संदर्भों की जानकारी देकर लेखक कहानी में एक और तरह की सुगंध भर देता है। कहानी के अंत की ओर, कुत्ते के हँसने की अंतिम घटना बहुत ही संवेदनशील और विचारोत्तेजक है। एक अमेरिकी कुत्ता खरीदना चाहता था। मुँह माँगे दाम देकर। कुत्ता हँस पड़ा। अमेरिकी ने हँसने का कारण पूछा। असमंजस ने जवाब दिया - "साहिब सोचते हैं कि धन से वे वह सबकुछ खरीद सकते हैं जो वे चाहते हैं और यही सोच कर कुत्ता हँस रहा है है।" एक अन्य शक्तिशाली कहानी "चूहा और मैं" है, जिसे सुप्रसिद्ध हिंदी लेखक हरिशंकर परसाई ने लिखा है, जो व्यंग्यकार के रूप में प्रख्यात रहे हैं। इस कहानी में, लेखक ने बताया है कि कैसे एक मोटा चूहा उसके घर में अपना अधिकार समझ कर रहता और खाता है। चूहा खुद को घर का मालिक समझता है। घर का मालिक कई तरीके अपनाकर चूहे को खाने से हटाने की कोशिश करता है, लेकिन चूहा चुपचाप बैठा रहता है। वह अपने अधिकार के लिए निरंतर संघर्ष करता है, मसलन मालिक को कई तरह से सताता है। इस कहानी का अंत भी बहुत विचारोत्तेजक और प्रभावी है। लेखक इन शब्दों के द्वारा कहानी समाप्त करता है - "मगर मैं सोचता हूँ - आदमी क्या चूहे से भी बदतर हो गया है? चूहा तो अपनी रोटी के हक के लिए मेरे सिर पर चढ़ जाता है, मेरी नींद हराम कर देता है। इस देश का आदमी कब चूहे की तरह आचरण करेगा?" इस कहानी में भी चूहा आदमी की भाषा में बात नहीं करता। इसका मतलब है कि पशु को पशु के रूप में दर्शाया गया है। मैं अब मराठी बाल साहित्य की प्रख्यात लेखिका लीलावती भागवत का जिक्र करना चाहूँगा जिनका 93 वर्ष की आयु में निधन हुआ था। इनके यहाँ भी जानवरों की महत्वपूर्ण भूमिका मिलती है लेकिन जानवर जानवर बने रहकर ही अपनी भूमिका निभाते हैं। कभी कभी लेखिका पारंपरिक भारत का स्वाद देने के लिए जानवरों के बारे में लोकप्रिय लोक- आस्थाओं उपयोग करती है और फिर दूसरे तार्किक तरीके भी सुझाती है। हम उनकी बहुत लोकप्रिय किताब "जंगल में एक रात" का उदाहरण ले सकते हैं। मैं कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा, "प्रिय यह क्या है?" / "मेरी टाँग! यह जल रही है और और खुजली हो रही है", स्वाति ने कहा। "यह भी लाल भी है और सूज भी गई है" स्वाति / कहा,"। कुछ तुम्हें काट गया क्या" मीना ने उत्सुकता से पूछा। "नागिन है या कुछ और?" / यामू ने अचानक अपनी आँखें मूँद लीं और सत्यनिष्ठा के साथ "आस्तिक आस्तिक काला डोरा" बोलने लगी। / "भगवान के लिए आप क्या गुनगुना रही हैं", मीना ने पूछा। / यामू ने समझाया," यह एक मंत्र (भजन) है। जब कभी मेरी माँ 'साँप' शब्द सुनती है तो वह इन शब्दों को दो बार कहती हैं। उनका कहना है कि साँप से होने वाले किसी भी नुकसान की आशंका से यह रक्षा करता है।" इसमें कोई शक नहीं, बच्चे अपने माता-पिता को जो भी करते देखते हैं उनकी प्रायः नकल किया करते हैं। इस कहानी में, अंततः शेवंता के द्वारा यामू को 'प्राथमिक चिकित्सा' उपचार दिया जाता है और सब कुछ ठीक हो जाता है। मैं एक अन्य प्रमुख मराठी लेखक गंगाधर गाडगिल (1923-2008) को याद किए बिना नहीं रह सकता जिन्होंने बाल साहित्य भी लिखा है और जानवरों को जानवरों के रूप में ही चित्रित किया है अर्थात न उन्हें मानव बनाया है और न ही उन्हें मनुष्य की भाषा दी है। अब मैं संक्षेप में उनके जासूसी बाल उपन्यास "पाक्या और उसका गेंग" पर चर्चा करना चाहूँगा। इस उपन्यास में एक कुत्ते खांडुआ (Khanduaa) की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। टीम के सदस्यों में से एक हमेशा उस कुत्ते को बेवकूफ ठहराता नजर आता है। कुत्ता उसकी टिप्पणी का बुरा नहीं मानता। बल्कि वह तो टीम की भरपूर मदद करता है बहादुरी से खतरनाक चुनौतियाँ स्वीकार करता है। अंत में, टीम अपने मिशन में सफल होती है और उसका श्रेय कुत्ते को दिया जाता है। कुत्ता अपनी बहादुरी की कहानी जोर जोर से सुनाता है लेकिन अपनी भाषा में यानी भौं भौं भौं की भाषा में। कुत्ते के कारनामे ऐसे हैं कि बच्चे सहज ही आकर्षित होंगे। एक कश्मीरी लेखक सूर्या रसूल द्वारा लिखित कहानी "समझदार पक्षी" (Wise Bird) भी एक अच्छी कहानी है जिसमें छोटी गौरैया की बुद्धि की मदद से जंगल आग से बच जाता है जबकि घमंडी राजा मोर कुछ नहीं कर पाता। इनके अतिरिक्त जानवरों और पक्षियों से संबंधित अन्य अच्छी पुस्तकों में मैं, पंजाबी लेखक जसबीर भुल्लर द्वारा लिखित " जंगली टापू ", बंगाली लेखक सुनील गंगोपाध्याय की "तितलियों के देश में", सिंधी लेखक ईश्वर चंदर की मजेदार कहानी "जब बिल्ली ने चश्मा पहना" जिसमें चूहे-बिल्ली की करतूतों के माध्यम से आत्मरक्षा का संदेश दिया है, का उल्लेख कर सकता हूँ। "चूघ गिलहरी"( Choogh The Squirrel) अंग्रेजी की बिटी मित्तल द्वारा लिखित एक कहानी है जिसमें एक स्त्री गिलहरी को अंततः उसके अपने प्राकृतिक घर में रहने की अनुमति दी गई है। जे यतिराजन (J Yatirajan) द्वारा लिखित तमिल कहानी "बछड़ा" (He- calf) में भी पशुओं के प्रति प्यार का बहुत अच्छी तरह से चित्रण किया गया है। शैली आत्मकथात्मक है। बच्चों ऐसी कहानियाँ पसंद करते हैं। पूवाई अमुधन (Poovai Amudhan) द्वारा लिखित एक और तमिल कहानी "इंस्पेक्टर चाचा" में, फिर जानवर (एक कुत्ते) के प्रति प्यार दर्शाया गया है। भारतीय परिवेश में कुत्तों की दयनीय वास्तविकता भी दिखायी गई है। इस रोचक और प्रेरणादायक कहानी में एक बच्चा को एक कुत्ते के बच्चे को बचाता है। जानवरों का ख्याल रखने वाली संस्थाओं की भी जानकारी दी गई है। कन्नड़ लेखक टी.सी. पूर्णिमा द्वारा लिखित एक कहानी "जैसी करनी वैसी भरनी" (You get as per your doing) में एक हाथी के घमंड का पतन दिखाया गया है। हाथी जिसे खूबसूरत जंगल ने शरण दी थी, उसे ही अपने घमंड में चूर होकर नष्ट करने लगता है। अंत में उसे अपनी गलती का एहसास पछतावा होता है। वह जंगल का रक्षक बन जाता है। इस प्रेरणादायक कहानी के विवरण आकर्षक हैं। यहाँ मैं हिंदी कथा लेखक क्षमा शर्मा की एक सुंदर कहानी "पंखों के साथ बिल्ली" का भी हवाला दे सकता हूँ। इस कहानी में आई कल्पना बच्चों के लिए काफी आकर्षक है। एक बिल्ली एक नन्हीं चिड़िया की मदद से उसकी दादी के पास रखे उसके पति के पंखों में से पंख पाने में कामयाब हो जाती है। बेशक, शुरू में दादी ने चिड़िया को वैसी मदद से रोकना चाहा क्योंकि बाद में वह चिड़ियाओं के लिए खतरनाक साबित हो सकती है, लेकिन आखिर उसे झुकना पड़ा। उसकी आशंका सही निकली। पंखों की सत्ता मिलने के बाद उस बिल्ली के लिए पेड़ पर बने चिड़ियाओं के घोंसलों तक पहुँचना आसान हो गया। सौभाग्य से, एक बंदर उसके पंखों को छीन लेता है। बिल्ली पछताती है लेकिन अब उस पर कोई भरोसा नहीं करता और न ही कोई उसकी करता है। क्षमा शर्मा ने सुंदर कल्पना की शक्ति का उपयोग करते हुए अनेक कहानियाँ लिखी है। उनकी कहानी "पप्पू चला ढूँढ़ने शेर" भी एक और अच्छा उदाहरण है। यह कहानी पशु-संरक्षण को बहुत ही संवेदनशिलता के साथ सामने लाती है। जब हम पढ़ते हैं कि शेर अब बस किताब या चिड़ियाघर में ही मिलता है तो सहज ही भीतर तक हिल जाते हैं। बच्चों में अपने पर्यावरण के प्रति बहुत ही सहज ढंग से सचेत करने वाली यह एक सक्षम कहानी है। भारतीय बाल साहित्य में जानवरों की उपस्थिति अनेक रूपों में मिलती है। कभी-कभी यह उपस्थिति जानवरों के मुखौटों के रूप में भी मिलती है। इत्यादि। उदाहरण के लिए, हम प्रकाश मनु के उपन्यास "एक था ठुनठुनिया", राजस्थानी लेखक लक्ष्मीनारायण रांगा की बहुत अच्छी कहानी "वह आ रहा है आदि को इस दृष्टि से भी पढ़ सकते हैं। यह कहानी एक से दूसरे को सुनाने की शैली में चलती है। एक जानवर के द्वारा सभी जानवरों को सूचित किया जाता है कि "वह आ रहा है", लेकिन कोई नहीं जानता कि वह कौन है। वे मृत्यु सहित सबसे खराब खतरे का भी अनुमान लगाते हैं लेकिन कहानी के अंत तक सही अनुमान लगाने में विफल रहते हैं। अंततः बंदर पर्दाफाश करता है कि आदमी कुल्हाड़ी के साथ आ रहा है। स्वार्थी आदमी द्वारा उठाए गए पर्यावरण के खतरे के खिलाफ यह कहानी सचेत करती है। एक प्रमुख हिंदी लेखक मोहन राकेश ने अपनी एक कहानी "सुनहरा मुर्गा, काला बंदर, लाल अमरूद का पेड़" में अस्तित्व की समस्या को बहुत अच्छी तरह से उभारा है। इस कहानी में चाहे गैर आदमी पात्रों ने आदमी की भाषा का प्रयोग किया है लेकिन उनका मानवीकरण होने से उन्हें बचाया है। कल्पना का उपयोग हुआ हे लेकिन विश्वसनीयता और स्वीकार्यता के दायरे में। उदाहरण के लिए पेड़ मदद करने के लिए फल टपकाता है। एक एक पेड़ अपने दम पर फल टपका सकता है, कैसे कह सकते हैं। पेड़ व्यक्ति या जानवर तो है। लेकिन पेड़ से फल टपकते हैं, इस तथ्य का लेखक ने एक कलात्मक तरीके से चित्रण किया हैं। आज भारतीय बाल साहित्य में ऐसा साहित्य भी उपलब्ध है जिसमें जानवरों पर थोपी गई पारंपरिक सोच में बदलाव आया है। उदाहरण लिए मनुष्यों की दुनिया में गधे को हमेशा लद्दू और दूसरों का भार ढोते रहने वाला मूर्ख समझने की रूढ़ि रही है। इस लेख के लेखक की एक कविता 'वेट लिफ्टर' में गधा बच्चों को समझाने में सफल होता है कि उसे दूसरों का बोझ उठाने वाला लद्दू मूर्ख न कह कर 'वेट लिफ्टर' माना और पुकारा जाए। मुझे सिंधी लेखक डॉ हुंदराज बलवाणी द्वारा लिखित कहानी 'गपलू तपलू' भी याद हो आई है। गपलू और तपलू दो गदहे हैं। तपलू को शिकायत है कि लोग गदहों को अनावश्यक रूप से मूर्ख समझते हैं और यहाँ तक कि उन्हें मूर्ख पुकारते भी हैं। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गदहे बेवकूफ नहीं हैं। एक और सिंधी कवि महेश नेवाणी ने भी इसी तरह के भाव की कविता लिखी है। उनकी कविता 'मूँछ नहीं बल्कि पूँछ' में एक साँप और नेवला के बीच शत्रुता के पारंपरिक रिश्ते के स्थान पर एक नए रूप में प्रस्तुत किया गया है। जयश्री नायक की एक कहानी 'नई सुबह' में एक शेर जो जानवरों को केवल भूख के लिए नहीं अपितु मजे के लिए भी भोजन बनाता है अंततः यह एहसास करता है कि हमें किसी भी चीज का उपयोग जरूरत के अनुसार करना चाहिए।

इस संदर्भ में अन्य लेखकों में मैं हिंदी के डॉ नागेश पांडेय संजय, स्वयं प्रकाश, अमर गोस्वामी, बलदेव सिंह बद्दन, विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी, मोहम्मद असरफ खान, डॉ. बानो सरताज, श्याम सुशील, सुरेंद्र विक्रम, डॉ मधु पंत, परशुराम शुक्ल, शांता ग्रोवर, शीरीन रिजवी, रमेश तैंलंग निर्मला सिंह के नाम अवश्य जोड़ सकता हूँ जिन्होंने जानवरों और पक्षियों से संबंधित ध्यान देने योग्य साहित्य लिखा है। बेशक नामों की यह पूरी सूची नहीं है क्योंकि कई और नाम हैं जो समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के प्रमुख लेखकों में से भी इसी तरह के कुछ उल्लेखनीय लेखकों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जैसे बराकी इकबाल अहमद (समझदार कछुआ), उषा आनंद (जंगल में एक पूल), अनीता देसाई (मोर बगीचा, हाउसबोट पर एक बिल्ली), डॉ जाकिर हुसैन (अब्बूखान की बकरी), तारा तिवारी (सोना के एडवेंचर), लाल सिंह (नुस्खा), रामेंद्र कुमार (पूँछ की कहानी), जेबी शर्मा (शेर और हाथी) इत्यादि।

भारतीय बाल साहित्य में जानवरों और पक्षियों की उपस्थिति उपमा, गाली, चित्र और खाद्य पदार्थ के रूप में भी मिलती है। बिना अधिक ब्यौरे में जाए, में कश्मीरी लेखक हरिकृष्ण कौल द्वारा लिखित एक कहानी "अगले दिन" का उल्लेख कर सकता हूँ जिसमें जानवरों का वर्णन भोजन आदि के रूप में उपलब्ध है। हिंदी कवि परशुराम शुक्ल की एक कविता में, एक बच्चा अपनी माँ को बताता है कि उसने एक चित्र बनाया है जिसमें हाथी का बच्चा हाथी पर बैठा दिखाया है। हाथी का बच्चा शरारती है। वह सूँड़ उठाकर पत्ते तोड़ कर खाता है। कविता यूँ है :

मम्मी मैंने ड्राइंग बुक में, हाथी एक बनाया।
हाथी के ऊपर हाथी के, बच्चे को बैठाया।
हाथी का बच्चा हाथी पर, ऊधम खूब मचता।
और कभी वह सूंड़ उठाकर, छोटे पत्ते खाता॥

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आज के भारतीय बाल साहित्य में हम जानवरों, पक्षियों (कीड़ों को भी) विभिन्न रूपों और शैलियों में उपस्थित देख सकते हैं और उनका आनंद ले सकते हैं। कभी वे अपने खुद के प्राकृतिक रूप में मौजूद मिलते हैं, तो कभी रूपक, प्रतीक, चित्र, दूत, खिलौने, मुखौटे, व्यक्ति आदि के रूप में। कभी आदमी की भाषा बोलते हैं तो कभी वे नए रूप में मौजूद होते हैं। अच्छा है कि भारतीय लेखक लगातार प्रयोग करते हुए बाल साहित्य में एक नए रूप, नई सामग्री, नई भाषा और नया दृष्टिकोण आदि देने के प्रयत्न में संलग्न हैं।


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हिंदी समय में दिविक रमेश की रचनाएँ